सावन के झूले अब कहां? – एक मिटती परंपरा की कहानी

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रिपोर्ट: माया लक्ष्मी मिश्रा | रायबरेली, उत्तर प्रदेश | Kadak Times

सावन की पहली फुहार जब धरती पर गिरती है, तो सिर्फ मिट्टी ही नहीं महकती, बल्कि मन भी भीग जाता है। एक समय था जब सावन का नाम सुनते ही आंखों में गांव की गलियां, पीपल की डालियों पर पड़े झूले, और उनमें झूलती महिलाओं की हंसी याद आ जाती थी। लेकिन अब वो दृश्य कहीं खो गए हैं। सावन का महीना आज भी आता है, बारिश भी होती है, लेकिन न तो झूले दिखते हैं, न ही वो लोकगीत सुनाई देते हैं जो कभी गांव की रूह हुआ करते थे।

सावन अब बस एक तारीख है, उत्सव नहीं

जिस मौसम में कभी खेतों की मेड़ें और गांव के चौपाल रौनक से भर जाते थे, आज वहां सन्नाटा पसरा होता है। नई पीढ़ी मोबाइल की स्क्रीन में उलझी है, और पुराने झूले अब केवल तस्वीरों और किस्सों में सिमट गए हैं।

सावन का यह बदलाव सिर्फ एक मौसमीय परिवर्तन नहीं है, यह उस सांस्कृतिक बदलाव की कहानी है जिसमें हमने अपनी जड़ों से कटना शुरू कर दिया है। पहले जहां पेड़ों की छांव में झूले पड़ते थे, वहां अब पक्की दीवारें और सीमेंट के जंगल उग आए हैं।


झूले नहीं, भावनाएं थीं वो

सावन के झूले केवल मनोरंजन का साधन नहीं थे। वे हमारे सामाजिक रिश्तों, सामूहिक जीवन और सौहार्द के प्रतीक थे। महिलाएं साल भर की जिम्मेदारियों से कुछ पल निकाल कर एक-दूसरे से मिलतीं, गीतों में अपने भावों को उड़ेलतीं और झूलते हुए जीवन की गति को महसूस करती थीं।

आज के बच्चे न तो उन गीतों से परिचित हैं, न ही उन पेड़ों से जिन पर झूले डाले जाते थे। उन्होंने कभी महसूस ही नहीं किया कि गांव की हवा में झूले की आवाज कैसी होती है, या कजरी गाते समय चेहरे पर कैसे भाव आते हैं।


जब संस्कृति तकनीक में गुम हो जाए

हमने आधुनिकता की दौड़ में बहुत कुछ पाया है — मोबाइल, इंटरनेट, हाई-टेक शिक्षा, सुविधाएं — लेकिन इसके बदले जो खोया है, वह अनमोल था। हमने न केवल अपने रीति-रिवाजों को खोया, बल्कि सामूहिकता का भाव, लोकजीवन का रस और त्योहारी जुड़ाव भी धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है।

अब मेलों की जगह मॉल ने ले ली है, और झूलों की जगह स्क्रीन पर उंगलियों का झूलना है। यहां तक कि त्योहारों में भी असली भागीदारी कम और “फोटो खिंचवाने की होड़” ज्यादा दिखती है।


मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी चिंता

इस बदलाव का सीधा असर हमारे सामाजिक और मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ा है। जब मनुष्य सामाजिक गतिविधियों से कटता है, तो अकेलापन और अवसाद जैसे भाव उसके जीवन में जगह बना लेते हैं। पहले सावन का उत्सव महिलाओं के लिए भावनात्मक राहत का जरिया होता था, जहां वे अपने मन की बात गीतों के माध्यम से कहती थीं। अब वह मंच भी खत्म हो गया है।


क्या हो सकता है हल?

  1. स्कूलों में सांस्कृतिक जागरूकता अभियान चलाए जाएं – बच्चों को लोकगीत, झूला महोत्सव, और पारंपरिक त्योहारों का हिस्सा बनाया जाए।
  2. ग्राम पंचायतें झूला उत्सव को पुनर्जीवित करें – हर साल सावन में गांव स्तर पर झूला आयोजन, गीत प्रतियोगिताएं और पारंपरिक मेले आयोजित हों।
  3. सोशल मीडिया को परंपरा के प्रचार का जरिया बनाएं – नए जमाने के Influencers, Content Creators इन परंपराओं को अपने content के माध्यम से दिखाएं, ताकि यह चलन दोबारा जगे।

बदलाव के साथ परंपरा को बचाना है

समय के साथ चलना गलत नहीं, लेकिन अपनी संस्कृति को पीछे छोड़ देना खतरनाक है। जब हमारी आने वाली पीढ़ी को यह भी न पता हो कि कजरी क्या होती है, या झूला कैसे डाला जाता है, तो यह सिर्फ एक परंपरा का नुकसान नहीं, बल्कि अपनी जड़ों से कटने की शुरुआत है।

सावन के झूले हमारे लोकजीवन की आत्मा थे। हमें फिर से प्रयास करने होंगे कि यह आत्मा जीवित रहे। गांव में एक बार फिर झूले पड़ें, गीत गूंजें, और नई पीढ़ी भी वो उल्लास महसूस कर सके जो कभी हमारे बचपन का हिस्सा था।


निष्कर्ष

हमें तय करना है कि क्या सावन का नाम केवल मेघों और बारिश तक सिमटा रहेगा, या उसमें झूले, गीत, रिश्ते और रंग फिर से लौटेंगे। जब तक झूले नहीं पड़ेंगे, तब तक सावन अधूरा रहेगा। आइए, इस बार सावन में सिर्फ बादलों को ही नहीं, अपनी संस्कृति को भी लौटाएं।


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