रिपोर्ट: माया लक्ष्मी मिश्रा, रायबरेली, उत्तर प्रदेश, कड़क टाइम्स
रायबरेली जनपद में इन दिनों जंगल नहीं, सवाल कट रहे हैं—और सवाल यह है कि आखिर दबंग वन माफियाओं के आगे वन विभाग के अधिकारी बार-बार नतमस्तक क्यों नजर आते हैं। जिले की लगभग हर तहसील में हरे-भरे पेड़ों का जिस रफ्तार से सफाया हो रहा है, उसने पर्यावरण को गंभीर खतरे में डाल दिया है। हालात यह हैं कि सड़क किनारे, खेतों के आसपास और आबादी से सटे इलाकों में भी खुलेआम पेड़ों की कटान हो रही है, लेकिन जिम्मेदार विभाग सिर्फ कागजी कार्रवाई तक सिमटा दिखाई देता है।
कोरोना काल में ऑक्सीजन के लिए मची त्राहि-त्राहि आज भी लोगों के जेहन में ताजा है, लेकिन उसके बावजूद पर्यावरण के साथ खिलवाड़ थमने का नाम नहीं ले रहा। जिले में सक्रिय वन माफिया लगातार अवैध कटान कर रहे हैं और यह सब किसी छिपे हुए जंगल में नहीं, बल्कि सबकी नजरों के सामने हो रहा है। सवाल यह उठता है कि अगर आम लोग यह देख पा रहे हैं, तो वन विभाग के अधिकारी कैसे अनजान बने हुए हैं।
स्थानीय जानकारों का कहना है कि वन विभाग बिना किसी ground verification के कटान के परमिट जारी कर रहा है। पेड़ खड़े हैं या नहीं, उनकी स्थिति क्या है, इसकी भौतिक जांच किए बिना ही अनुमति दे दी जाती है। यही वजह है कि माफिया बेखौफ होकर काम कर रहे हैं। कभी-कभार अगर कोई लकड़ी पकड़ भी ली जाती है तो मामूली जुर्माना लगाकर फाइल बंद कर दी जाती है, जिससे सरकारी रिकॉर्ड में यह दिखाया जा सके कि विभाग ने कार्रवाई की है।
यह पहला मौका नहीं है जब इस मुद्दे को उठाया गया हो। भाजपा किसान नेता रमेश बहादुर सिंह ने वर्षों पहले अवैध कटान के खिलाफ जिला मुख्यालय पर धरना-प्रदर्शन कर प्रशासन को घेरा था। उस समय कुछ दिनों के लिए कार्रवाई तेज हुई और कटान पर अस्थायी रोक भी लगी, लेकिन जैसे ही मामला ठंडा पड़ा, हालात फिर वही हो गए। आज स्थिति यह है कि पुराने अनुभव से सबक लेने के बजाय व्यवस्था और ज्यादा ढीली होती जा रही है।
ग्रामीण इलाकों में सक्रिय कई लकड़ी ठेकेदारों के नाम बार-बार सामने आते हैं, जिन पर खुलेआम हरे पेड़ काटने के आरोप हैं। स्थानीय लोगों का दावा है कि जब कोई इनकी शिकायत करता है तो उल्टा उसी को परेशान किया जाता है। दबंगई, धमकी और प्रशासनिक दबाव के जरिए शिकायतकर्ता को चुप करा दिया जाता है। यही डर है कि लोग सामने आकर बोलने से कतराते हैं और माफिया का नेटवर्क और मजबूत होता चला जाता है।
सूत्रों की मानें तो इस पूरे खेल में स्थानीय प्रशासन और वन विभाग के कुछ कर्मचारियों की मिलीभगत भी अहम भूमिका निभा रही है। इसे महज लापरवाही कहना शायद सच्चाई से मुंह मोड़ना होगा। डलमऊ रेंज को लेकर विशेष रूप से आरोप लगते रहे हैं कि यहां अवैध कटान करने वाले ठेकेदारों से निजी एजेंटों के माध्यम से वसूली होती है। ये आरोप समय-समय पर उजागर भी हुए, लेकिन हर बार जांच अधूरी रह जाती है और जिम्मेदार अधिकारी खुद को बचाने में सफल हो जाते हैं।
वन रक्षकों की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे हैं। कहा जाता है कि कुछ वन रक्षक अपने क्षेत्र में रुतबा बनाए रखने के लिए माफियाओं से नजदीकी बढ़ाए हुए हैं। विभागीय संसाधनों का इस्तेमाल जंगल बचाने के बजाय प्रभाव दिखाने में हो रहा है। जब मामला ऊपर तक पहुंचता है तो अधिकारी साफ तौर पर जिम्मेदारी लेने से बचते नजर आते हैं और पूरा दोष सिस्टम पर डाल दिया जाता है।




