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वे
कायर थे
जो चुप रहे।

समय जब जल रहा था
जब सड़कों पर सच को घसीटा जा रहा था
जब किताबें फाड़ी जा रही थीं,
जब इतिहास को मिटाया जा रहा था,
जब मासूमों को आतंकवादी और
देशभक्तों को गद्दार कहा जा रहा था —
तब वे चुप रहे।

वे जानते थे
कौन जलाने वाले हैं,
कौन बर्बादियों के सौदागर हैं —
फिर भी उन्होंने अपनी ज़ुबान सी दी।

क्यों?

क्योंकि उनके बच्चे IIT की कोचिंग में थे,
क्योंकि उनकी बीवी के हाथ में महंगी चूड़ियाँ थीं,
क्योंकि उनके घर में एसी चलता था
और बाहर लोकतंत्र की लाश गल रही थी।

वे कायर थे
जो समझदारी का ढोंग करते थे।
उन्होंने बोलने वालों को मूर्ख कहा,
लड़ने वालों को उपद्रवी,
सीने पर गोलियाँ खाने वालों को
देशद्रोही कहा।

वे अपनी रोटी के साथ
दूसरों की चुप्पी भी सेंकते रहे।

वे बैठे रहे
अपने सुविधाओं के किले में —
जबकि बाहर
सपनों को मारा जा रहा था,
आवाज़ों को कुचला जा रहा था,
और अंधेरा
दिन में भी उतर आया था।

उनकी चुप्पी
दरअसल सौदेबाज़ी थी।
एक चुप —
जो बिक चुकी थी
भविष्य के EMI में।

और जब उनकी साँसें
बुझने लगीं,
जब उनके बच्चे
उन्हीं की तरह डरपोक निकले —
तब उन्हें याद आए
वे ‘मूर्ख’
जो लड़ते रहे,
जो जेल गए,
जो चीखते रहे
जब दुनिया सो रही थी।

वे कहना चाहते थे कुछ —
पर गला सूख चुका था,
आवाज़
गुर्दे में कहीं दबकर मर चुकी थी।

वे
बिना बोले मरे।
बिना लड़े हारे।
बिना जीवित हुए —
खत्म हो गए।

अब समय आ गया है
चुप्पियों को धिक्कारने का,
कायरता की चादर फाड़ने का,
और हर उस ‘समझदार’ को
उसकी कब्र तक
उसका सच दिखाने का।


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