बबूल बोया और आम की आस: नफ़रत की खेती और जनता की बर्बादी का समाजशास्त्रीय विमर्श

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बबूल बोया और आम की आस: नफ़रत की खेती और जनता की बर्बादी का समाजशास्त्रीय विमर्श

21वीं सदी का भारत एक विचित्र विरोधाभास से जूझ रहा है — एक ओर वह “विश्वगुरु” बनने का दावा कर रहा है, दूसरी ओर समाज में नफ़रत, असहिष्णुता और धार्मिक ध्रुवीकरण की फसलें लहलहा रही हैं। यह लेख इसी दुविधा का आईना है। “बबूल बोया और आम की आस” कोई साधारण उपालंभ नहीं है, यह उस सामूहिक मूर्खता और व्यवस्था-प्रेरित भावनात्मक शोषण का तीखा विश्लेषण है, जिसमें जनता रोज़ उलझती है।

राजनैतिक दृष्टिकोण: सत्ता का खेल और जनादेश का अपहरण

राजनीति आज लोककल्याण का माध्यम नहीं, सांप्रदायिक रणनीति का अखाड़ा बन चुकी है। एक वर्ग विशेष को खलनायक बना देना और बहुसंख्यक को पीड़ित की भूमिका में पेश करना — यह सत्ता हासिल करने का सबसे आसान और सबसे पुराना तरीक़ा है।

यह वही राजनीति है जो:

* धर्म के नाम पर वोट मांगती है,
* दंगों के बाद राहत शिविरों में पीड़ितों को छोड़, दोषियों को मंच पर ले आती है,
* और वास्तविक समस्याओं (महंगाई, बेरोज़गारी, शिक्षा, स्वास्थ्य) को धार्मिक शोर में दबा देती है।

राजनीति अब विचारधारा की नहीं, पहचान की लड़ाई बन चुकी है।

सामाजिक दृष्टिकोण: एकता का बिखराव और वर्ग-चेतना की क्षति

जब एक फैक्ट्री में काम करने वाले दो मज़दूर — एक हिंदू, एक मुसलमान — एक जैसी मज़दूरी पाते हैं, एक जैसा पसीना बहाते हैं, और फिर भी एक-दूसरे को अपना दुश्मन मानते हैं, तो यह बताता है कि समाज ने अपने वर्गीय हितों की पहचान खो दी है।

धार्मिक पहचान ने वर्गीय एकता को निगल लिया है। यह समाजशास्त्र में झूठे वर्ग-विभाजन (false consciousness) की स्थिति है, जहाँ शोषित वर्ग अपने शोषकों को नहीं, अपने जैसे अन्य पीड़ितों को दोषी मानता है।

जातीयता और धार्मिकता, दोनों ने सामाजिक न्याय की लड़ाई को हड़प लिया है।

वैचारिक दृष्टिकोण: तर्क और सोच की हत्या

“व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी” का उल्लेख महज व्यंग्य नहीं है, यह उस डिजिटल डिफॉर्मेशन की स्थिति को उजागर करता है जिसमें सूचना के नाम पर अफ़वाह, और शिक्षा के नाम पर नफ़रत परोसी जा रही है।

भारत जो कभी “न्याय की भूमि”, “तर्क की परंपरा” और “गणित, विज्ञान और दर्शन” का गढ़ था, वहां आज सवाल पूछना “देशद्रोह” कहलाता है, और तर्क करना “संस्कृति-विरोध”।

विचार अब आंदोलन नहीं, आरोप बन चुका है।

नैतिकता की दृष्टि: किसकी ज़िम्मेदारी है यह पतन?

किसी समाज की नैतिकता केवल उसके धर्मशास्त्र या संविधान से तय नहीं होती — वह उसके रोज़मर्रा के व्यवहार, उसकी सहिष्णुता, उसकी करुणा और उसकी ईमानदारी से तय होती है।

जब एक समाज नफ़रत को मनोरंजन, अफ़वाह को सच्चाई, और हिंसा को वीरता मानने लगे — तो वह अपने नैतिक पतन की ओर बढ़ रहा होता है।

* क्या हम एक ऐसे राष्ट्र बन गए हैं जहाँ इंसान की पहचान उसके धर्म से तय होती है?
* क्या किसी भी सामाजिक त्रासदी की प्राथमिक प्रतिक्रिया यही होती है: “मरने वाला कौन था — हिंदू या मुसलमान?”

यह नैतिक सवाल अब टाला नहीं जा सकता।

समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य: आँकड़े, संस्थाएं और भविष्य

समाजशास्त्र हमें सिखाता है कि कोई भी असमानता या अन्याय — अगर संस्थागत रूप से पोषित हो — तो वह अंततः पूरे समाज की नींव को कमजोर कर देता है।

* भारत में 2019 तक दंगे के मामलों में सज़ा की दर 10% से कम है। इसका अर्थ है — न्याय नहीं, प्रतीकात्मकता चल रही है।
* 84 बार इंटरनेट शटडाउन — और सबसे अधिक प्रभावित हुए गरीब, छात्र, छोटे व्यापारी, और हाशिए के समुदाय।

ये आँकड़े बताते हैं कि दंगों का सबसे बड़ा नुकसान धर्म को नहीं, “जनता” को होता है।

क्या हो समाधान?

1. शिक्षा को पुनर्जीवित करें — स्कूलों में विज्ञान, तर्क और मानवता का पाठ अनिवार्य हो।
2. नफ़रत के खिलाफ कानूनी ढांचा — नफ़रत फैलाने वाले बयानों को स्पष्टता से ‘अपराध’ घोषित किया जाए।
3. डिजिटल साक्षरता अभियान — ‘सोचने’ और ‘जाँचने’ की आदत डिजिटल स्पेस में भी डाली जाए।
4. न्याय व्यवस्था को मज़बूत करें — दंगा पीड़ितों को न्याय मिले, दोषियों को सज़ा।

धर्म नहीं, भविष्य ख़तरे में है:

आख़िर में एक कटु सत्य:

धर्म को कुछ नहीं होता। धर्म न अन्न मांगता है, न पानी, न नौकरी। धर्म को ख़तरे में बताकर, जो चीज़ असल में ख़तरे में आती है — वो है हमारा संविधान, हमारा सहअस्तित्व, और हमारे बच्चों का भविष्य।

हमारा रास्ता स्पष्ट होना चाहिए —
बबूल उखाड़ना है और आम लगाना है।
नफ़रत को खत्म कर, तर्क, भाईचारा और शिक्षा की खेती करनी है।


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