
‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ का मीडिया में राजनीतिककरण – लोकतंत्र की परीक्षा का क्षण
प्रदीप शुक्ल, अयोध्या
एक लोकतंत्र की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उसकी संस्थाएँ – संसद, न्यायपालिका, मीडिया और नागरिक समाज – किस हद तक स्वतंत्र, जिम्मेदार और संतुलित हैं। इनमें से यदि कोई एक स्तंभ अपने मूल दायित्व से विचलित होता है, तो सत्ता के केंद्रीकरण और जनचेतना के अपहरण का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। आज जब हम ऑपरेशन सिन्दूर की राजनीतिक प्रस्तुति और उसके मीडिया प्रचार की प्रकृति को देखते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि मीडिया – लोकतंत्र का चौथा स्तंभ – एक बड़े संकट से गुजर रहा है।
I. राजनैतिक परिप्रेक्ष्य: सत्ता के प्रचार तंत्र में मीडिया की भूमिका
सैन्य कार्रवाई और आतंकवाद विरोधी अभियानों को हमेशा रणनीतिक, गोपनीय और गम्भीर प्रकृति का माना गया है। परंतु वर्तमान में जब ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ जैसे अभियान को एक राजनीतिक उत्पाद के रूप में ब्रांड किया जा रहा है, तो वह लोकतांत्रिक मर्यादाओं की सीमा लांघ जाता है। प्रधानमंत्री का यह कहना कि “मेरी रगों में खून नहीं, गर्म सिन्दूर बहता है” या “बहनों का सिन्दूर मिटाने वालों का मिटना तय है”, केवल एक राजनैतिक पंक्ति नहीं, बल्कि एक चुनावी रणनीति का हिस्सा है — जहाँ युद्ध और राष्ट्रवाद, वोटों की खेती के साधन बन जाते हैं।
यह रणनीति तब और स्पष्ट हो जाती है जब यह अभियान चुनावी राज्यों में रोड शो, रैलियों और मीडिया blitzkrieg के माध्यम से फैलाया जाता है। ऐसे में सवाल उठता है — क्या राष्ट्रीय सुरक्षा के विषय का उपयोग जनमत को प्रभावित करने के लिए किया जाना नैतिक है?
II. वैचारिक दृष्टिकोण: राष्ट्रवाद का संकुचित और नियंत्रित संस्करण
मीडिया में राष्ट्रवाद का वर्तमान स्वरूप एक आक्रामक और असहिष्णु राष्ट्रवाद का रूप ले चुका है, जिसमें सवाल पूछना ‘देशद्रोह’ और असहमति ‘विरोधी एजेंडा’ बना दी जाती है। यह विचारधारा ऐसे विमर्श को जन्म देती है जहाँ सिर्फ एक ही कथा ‘सत्य’ मानी जाती है — और वह सत्ता द्वारा निर्मित होती है।
टेलीग्राफ, द हिन्दू, या कुछ स्वतंत्र मीडिया संस्थानों द्वारा उठाए गए सवाल — जैसे कि पुलवामा के हमलावरों की जानकारी अब तक क्यों नहीं है, ऑपरेशन सिन्दूर के नाम और समय का चुनाव कितना योजनाबद्ध था, और युद्धविराम पाकिस्तान के अनुरोध पर क्यों हुआ — ये सब लोकतंत्र में आवश्यक हैं। लेकिन इन्हें नज़रअंदाज़ कर, नवोदय टाइम्स या अमर उजाला जैसी संस्थाएँ सरकार के भाषणों और बयानों को हूबहू ‘लीड’ बनाकर परोसती हैं, बिना किसी विश्लेषण या आलोचना के।
III. सामाजिक परिप्रेक्ष्य: जनचेतना का हरण
जब मीडिया पूरी तरह से सरकार की भाषा बोलने लगे, तब समाज का आम नागरिक भ्रम में जीने लगता है। वह यह मान बैठता है कि “हमने पाकिस्तान को सबक सिखा दिया”, भले ही युद्धविराम पाकिस्तान के कहने पर हुआ हो। वह सोचता है कि “हम आर्थिक महाशक्ति बन गए हैं”, भले ही अर्थव्यवस्था की मजबूती सिर्फ रुपये और डॉलर के विनिमय दर पर आधारित आंकड़ों से नहीं मापी जा सकती।
इस प्रकार का प्रचार समाज में झूठी तुष्टि (false contentment) और यथास्थिति का स्वीकार (status quo acceptance) पैदा करता है, जो लोकतंत्र के लिए एक धीमा ज़हर है।
IV. मीडिया का व्यावसायीकरण और संपादकीय स्वतंत्रता का ह्रास
अधिकांश मुख्यधारा मीडिया संस्थान अब कॉरपोरेट-सरकारी गठजोड़ के तहत कार्य कर रहे हैं। वे विज्ञापन, सरकारी अनुबंध और कर लाभ के लालच में सम्पादकीय स्वतंत्रता को गिरवी रख चुके हैं। यही कारण है कि खबरों में शोर ज्यादा और विश्लेषण कम होता है। ‘खबर’ और ‘प्रचार’ के बीच की रेखा अब धुंधली हो चुकी है।
जब पत्रकारिता का उद्देश्य जनहित के सवालों को उठाने के बजाय सरकार की छवि चमकाना हो जाए, तो मीडिया केवल आईना नहीं रह जाता, वह एक प्रसाधन दर्पण बन जाता है — जिसमें सत्ता खुद को देखती है, और खुद को ही बेहतर दिखाने के प्रयास करती है।
मीडिया की भूमिका पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता:
आज आवश्यकता है एक सजग, स्वतंत्र और वैचारिक रूप से विविध मीडिया तंत्र की — जो सरकार से डरता न हो, जो सवाल पूछे, जो आंकड़ों के पीछे की सच्चाई सामने लाए, और जो ‘राष्ट्रहित’ की परिभाषा को सिर्फ सत्ता के शब्दकोश से नहीं, संविधान और नागरिक चेतना से निकाले।
“यदि लोकतंत्र को जीवित रखना है, तो मीडिया को प्रचारक नहीं, प्रश्नकर्ता बनना होगा।”