“सिंदूर का राजनीतिकरण: परंपरा की पवित्रता से खिलवाड़ या मतदाताओं के मन तक सीधी पहुँच?”

प्रदीप शुक्ला, अयोध्या 29 मई 2025
भारतीय राजनीति में प्रतीकों का प्रयोग नया नहीं है। तिरंगा, गंगा, राम, गाय, मंदिर – सबको अपने-अपने समय में राजनीति के मंच पर उतारा गया है। लेकिन इस बार एक नया प्रतीक “सिंदूर” उस मंच पर लाया गया है, जिसे भारतीय समाज में स्त्री के वैवाहिक जीवन, उसकी गरिमा और सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है।
भारतीय जनता पार्टी द्वारा “घर-घर सिंदूर वितरण अभियान” चलाने की योजना यदि केवल राजनीतिक उद्देश्यों के लिए है, तो यह केवल एक प्रतीक का उपयोग नहीं, बल्कि उसकी पवित्रता का अपमान है।
धार्मिक दृष्टिकोण से:
सिंदूर कोई प्रचार सामग्री नहीं है। यह भगवान शिव द्वारा माता पार्वती की मांग में भरा गया सौभाग्य का चिन्ह है, जो विवाह के पवित्र बंधन का प्रतीक बन चुका है। भारतीय शास्त्रों के अनुसार, यह केवल वर द्वारा कन्या की मांग में भरा जाता है – न कि किसी अजनबी के हाथों, और न ही किसी राजनीतिक कार्यकर्ता द्वारा।
क्या राजनीतिक प्रतिनिधि अब भगवान शंकर का स्थान लेंगे?
क्या वे सिंदूर का वितरण करके “वर” का प्रतीकात्मक कार्य” करने जा रहे हैं?
यह धार्मिक दृष्टि से एक गंभीर और भ्रामक अनधिकार चेष्टा है, जो धार्मिक मान्यताओं के मूल भाव को ठेस पहुँचाती है।
सामाजिक दृष्टिकोण से:
भारतीय समाज में विवाहित स्त्री की मांग में सिंदूर उसकी पहचान है। यह मात्र श्रृंगार नहीं, उसके जीवनसाथी के साथ पवित्र बंधन का सामाजिक प्रमाण है। अब कल्पना कीजिए – जब किसी महिला को राजनीतिक कार्यकर्ता द्वारा सिंदूर दिया जाएगा, वह उसे स्वीकार करे या न करे – दोनों ही स्थिति में वह असहजता की शिकार होगी।
यह सोचकर ही झिझक होती है कि सिंदूर जैसी निजी और भावनात्मक चीज़ को राजनीतिक नारों और अभियानों की वस्तु बना दिया जाए। क्या यह स्त्री की अस्मिता और सामाजिक मर्यादा का अपमान नहीं है?
राजनैतिक दृष्टिकोण से:
इस अभियान का नाम “ऑपरेशन सिंदूर” रखा गया है – और इसे सेना की कार्रवाई, विशेषकर कश्मीर के संदर्भ में जोड़कर प्रस्तुत किया जा रहा है। सेना के बलिदान को राजनीतिक चश्मे से देखना, उसका प्रचार करना और फिर उसके नाम पर सांस्कृतिक प्रतीकों का उपयोग करना एक खतरनाक मिसाल है।
सेना का अपोलिटिकल (गैर-राजनीतिक) स्वरूप भारतीय लोकतंत्र की एक बुनियाद है। इस तरह की कोशिशें, सेना के पराक्रम को वोट में बदलने का प्रयास बन जाती हैं। क्या यह देश की सैन्य गरिमा का राजनीतिककरण नहीं है?
वैचारिक दृष्टिकोण से:
भाजपा सहित कई दलों ने समय-समय पर धर्मनिरपेक्षता को लेकर विरोधी दलों की आलोचना की है, लेकिन जब वही धार्मिक प्रतीक वोट जुटाने के औजार बनते हैं, तो यह दोहरे मापदंडों की पराकाष्ठा होती है। जब कोई “कांग्रेस नेता मंदिर जाता है”, तो उसे ‘पाखंडी’ कहा जाता है, और जब एक राजनीतिक दल ‘सिंदूर बांटता है’, तो वह ‘संस्कृति की रक्षा’ बन जाती है?
क्या भारतीय मतदाता को अब सिंदूर, टीका और जनेऊ के आधार पर राजनीतिक संदेश दिए जाएंगे?
क्या भारतीय राजनीति विचारों की जगह अब प्रतीकों की भाषा में ही बात करेगी?
देश पर पड़ने वाला संभावित प्रभाव:
1. धार्मिक ध्रुवीकरण बढ़ेगा – क्योंकि यह अभियान स्पष्ट रूप से एक खास धार्मिक समुदाय की आस्था पर केंद्रित है।
2. सामाजिक विघटन हो सकता है – यदि महिलाएं इस परंपरा के राजनीतिकरण का विरोध करें, तो उन्हें “संस्कृति विरोधी” कह दिया जाएगा।
3. राजनीतिक विमर्श का पतन – जब गहन नीतिगत मुद्दों की जगह सिंदूर जैसे प्रतीकों पर बहस होगी, तो लोकतंत्र का स्तर गिर जाएगा।
4. स्त्रियों की अस्मिता पर प्रश्न – महिलाओं को फिर से एक राजनीतिक प्रतीक बना देना उन्हें उनके अधिकारों से दूर ले जाने जैसा होगा।
और अन्त में:
सिंदूर का स्थान मांग में है, मंच पर नहीं।
वह स्त्री के सौभाग्य का प्रतीक है, सत्ता के सौदे का नहीं।
भारत एक जीवंत लोकतंत्र है – यहां विचारों से लड़ा जाता है, आस्थाओं से नहीं।
यदि कोई दल अपनी विचारधारा को छोड़कर प्रतीकों के सहारे जनमानस में उतर रहा है, तो यह उसके वैचारिक दिवालियापन का संकेत है।
भारतीय परंपराएं हमारी आस्था की पहचान हैं – उन्हें हथियार न बनाएं, सम्मान दें।