Pardeep Shukla : Lucknow
“न्याय अगर चयनात्मक हो, तो वह अन्याय का सबसे खतरनाक रूप बन जाता है।”
लोकतंत्र की असली ताकत उसकी न्यायपालिका की स्वतंत्रता में निहित होती है। यदि न्याय की तराजू पर सत्ता का हाथ भारी पड़ने लगे, तो संविधान का संतुलन डगमगा जाता है। न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू होने की खबर एक बार फिर हमें यही सवाल पूछने पर मजबूर करती है—क्या भारत की न्यायपालिका वास्तव में स्वतंत्र है, या फिर यह भी सत्ता की राजनीतिक बिसात पर एक मोहरा बन चुकी है?
✍ सवाल महाभियोग का नहीं, मंशा का है
देश की सबसे बड़ी अदालतें और लोकतांत्रिक संस्थान तब तक जनता का भरोसा बनाए रखते हैं, जब तक उनके फैसले और कार्रवाइयाँ पारदर्शी और निष्पक्ष दिखती हैं। जस्टिस वर्मा के मामले में, आरोप अभी जांच के स्तर पर ही हैं—लेकिन मीडिया का एक बड़ा हिस्सा पहले ही उन्हें दोषी ठहरा रहा है। दूसरी ओर, जज लोया की संदिग्ध मृत्यु जैसी गंभीर घटनाओं में स्वतंत्र जांच तक की अनुमति नहीं दी गई थी।
यह विरोधाभास केवल न्याय के सिद्धांतों पर सवाल नहीं उठाता, बल्कि इस भय को भी गहरा करता है कि कहीं महाभियोग जैसी कार्रवाइयाँ ‘संदेश’ देने का औजार न बन गई हों—जजों को चेतावनी देने का कि सत्ता के खिलाफ जाना महंगा पड़ेगा।
✍ भ्रष्टाचार-विरोध या चयनात्मक कार्रवाई?
लोकसभा अध्यक्ष ने इसे “भ्रष्टाचार के खिलाफ शून्य सहिष्णुता” का संदेश बताया है। सिद्धांत रूप में यह बात स्वागतयोग्य है। परंतु जब यह ‘सहिष्णुता’ केवल चुनिंदा मामलों में दिखाई दे और जब रिश्वत देने वाले पर कोई कार्रवाई न हो, तो यह न्याय नहीं, बल्कि डर का वातावरण बनाता है—”पैसे न लो तो लोया, लो तो वर्मा” जैसी स्थिति।
अगर न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के खिलाफ सचमुच सफाई अभियान चलाना है, तो रिश्वत लेने वाले के साथ देने वाले के खिलाफ भी कार्रवाई होनी चाहिए। वरना यह पूरी मुहिम सिर्फ सत्ता के अनुकूल न्यायपालिका बनाने का माध्यम बन जाएगी।
✍ न्यायपालिका पर राजनीतिक शिकंजा
पिछले कुछ वर्षों में हम बार-बार देख चुके हैं कि विपक्षी नेताओं और मुख्यमंत्रियों पर ईडी और अन्य एजेंसियों की कार्रवाई तेज़ होती है, लेकिन सत्ता पक्ष में शामिल होते ही केस ठंडे बस्ते में चला जाता है। अदालतों ने भी कई बार ईडी की भूमिका पर सवाल उठाए हैं—जैसे कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की पत्नी के मामले में सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि “ईडी सभी सीमाएँ पार कर रहा है।”
अगर यही पैटर्न चलता रहा, तो लोकतंत्र में “न्याय” केवल सत्ता का उपकरण बनकर रह जाएगा।
✍ न्याय का असली संदेश
शून्य सहिष्णुता का संदेश भ्रष्टाचारियों को डराने के लिए होना चाहिए, न कि ईमानदार जजों को चुप कराने के लिए। अगर जांच शुरू होने से पहले ही किसी जज की प्रतिष्ठा मीडिया ट्रायल में नष्ट हो जाए, तो यह केवल एक व्यक्ति का नहीं, पूरी न्यायपालिका का नुकसान है।
सवाल यही है—क्या हम ऐसी न्याय व्यवस्था चाहते हैं जो सत्ता के खिलाफ खड़े होने पर आपको लोया बना दे और सत्ता के अनुकूल न होने पर वर्मा? या फिर ऐसी, जिसमें हर आरोपी—चाहे वह जज हो, मंत्री हो या उद्योगपति—एक ही कानून के तहत समान रूप से परखा जाए?
लोकतंत्र का भविष्य इसी सवाल के जवाब पर टिका है।
“सत्ता के तराजू पर तौला गया न्याय, न्याय नहीं—सिर्फ आदेश है।”






