
“क्या हमारी संवेदना मृत हो चुकी है?”
शहादत, एक शब्द नहीं — आत्मोत्सर्ग की पराकाष्ठा है। यह उन लोगों की अंतिम साँस है, जिन्होंने देश के लिए सब कुछ छोड़ दिया। लेकिन जब शहादत को राजनीतिक इवेंट, चुनावी हथियार या प्रचार की सामग्री बना दिया जाता है, तो वह न केवल उस बलिदान का अपमान है, बल्कि यह एक समाज की चेतना के मृत होने का संकेत भी है।
विचलित करने वाला दृश्य:
सोचिए – कोई मंच है, कैमरे चमक रहे हैं, एक तरफ मातम पसरा है, दूसरी तरफ भाषण, नारे, तालियाँ… और बीच में “देशभक्ति” का इवेंट।
कितना गर्भित और विद्रूपता से भरा हुआ मन चाहिए होता है, जो उजड़े हुए सिंदूरों के बीच उल्लास ढूंढ़ लेता है। और उससे भी अधिक खतरनाक होता है वह मन जो इन सबका सहभागी बनता है – टीवी पर, सोशल मीडिया पर, और वोट डालते समय।
यह महज़ इवेंट नहीं, राष्ट्र की आत्मा पर चोट है।
‘राष्ट्रीयता’ की नौटंकी बनाम सच्चा गर्व:
आज राष्ट्रीयता का स्वरूप बदल दिया गया है। यह अब गर्वीले मन का स्थायी भाव नहीं, बल्कि एक पैकेजिंग प्रोडक्ट बन गया है। भाषणों, होर्डिंगों और कैमरे के सामने की भावनाएँ सच्ची नहीं होतीं, जब तक वे व्यक्तिगत आचरण और राजकीय नीति में नहीं झलकतीं।
* अगर शहीद के परिजनों को इज्ज़त से ज़िंदगी जीने की गारंटी न हो,
* अगर जवानों को पर्याप्त संसाधन और सम्मान न मिले,
* अगर युद्ध और बलिदान का राजनीतिक लाभ लिया जाए—
तो ये सारा ‘देशभक्ति प्रदर्शन’ केवल एक मंचित नाटक है, जिसमें जनता को दर्शक और शहीद को स्क्रिप्ट बना दिया गया है।
समाज की भूमिका: सहमति की चुप्पी सबसे बड़ा अपराध
शायद सबसे खतरनाक बात यह नहीं है कि सत्ता ऐसा कर रही है, बल्कि यह है कि समाज इसे स्वीकार कर रहा है।
तालियाँ बजती हैं। सोशल मीडिया पर पोस्ट वायरल होते हैं।
कोई नहीं पूछता – क्या शहीद की तस्वीर के पीछे विज्ञापन क्यों है? क्या शोक में भी ब्रांडिंग जरूरी है?
यह चुप्पी भी एक अपराध है – एक सहमति का अपराध।
हम कहाँ जा रहे हैं?
जब त्रासदी पर ताली-थाली पीटी जाती है, और बलिदान पर बैनर लगाए जाते हैं, तो यह एक सांस्कृतिक पतन का स्पष्ट संकेत है। जहाँ शहादत, प्रचार और राजनीतिक विमर्श का हिस्सा बन जाए – वहाँ चेतना नहीं, केवल चमक बचती है।
अब क्या करना चाहिए?
1. शहादत को इवेंट नहीं, स्मृति और प्रेरणा बनाइए।
2. मौन न रहिए। जब भी बलिदान को राजनीतिक हथियार बनाया जाए – उसका विरोध कीजिए।
3. सच्ची देशभक्ति का अर्थ समझिए – नीति, संवेदना और न्याय के प्रति प्रतिबद्धता।
4. मीडिया और सत्ता से जवाब माँगिए – क्यों हर बलिदान के बाद शोर ज्यादा और सुधार कम होता है?
अंतिम शब्द:
* “राष्ट्रीयता कोई भुनाने की चीज नहीं है, वह गर्वीले मन का स्थाई भाव है।”
* यह पंक्ति केवल वाक्य नहीं, इस समय का नैतिक घोषणापत्र होनी चाहिए।
* क्योंकि अगर हम अब भी नहीं जागे, तो हम केवल एक लोकतंत्र नहीं, एक आत्मविहीन समाज बन जाएंगे।