जिला अस्पताल में स्टाफ नर्सों की भारी कमी, एक-एक नर्स संभाल रही दो-दो वार्ड

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रिपोर्टर: संदीप मिश्रा, रायबरेली

रायबरेली का राणा बेनी माधव सिंह जिला अस्पताल, जिसे मिनी मेडिकल कॉलेज और ट्रॉमा सेंटर का दर्जा देने की चर्चाएं लंबे समय से चल रही हैं, इन दिनों गंभीर संकट से गुजर रहा है। अस्पताल में स्टाफ नर्सों की भारी कमी ने मरीजों की देखभाल को चुनौतीपूर्ण बना दिया है। हालात ऐसे हैं कि एक स्टाफ नर्स को दो-दो वार्ड संभालने पड़ रहे हैं, जिससे न केवल मरीजों की सेवा प्रभावित हो रही है बल्कि नर्सें भी मानसिक और शारीरिक तनाव से जूझ रही हैं।

नर्सिंग स्टाफ पर बढ़ता दबाव

सरकारी मानकों के अनुसार एक स्टाफ नर्स को अधिकतम 10 से 12 मरीजों की देखभाल करनी होती है, लेकिन रायबरेली जिला अस्पताल में यह अनुपात पूरी तरह बिगड़ गया है। वार्ड नंबर 2 और 3 जैसे व्यस्ततम वार्डों में सिर्फ एक-एक नर्स से काम चलाया जा रहा है। यह न केवल मेडिकल एथिक्स के विरुद्ध है, बल्कि मरीजों के जीवन को खतरे में डालने जैसा है।

अस्पताल में कार्यरत नर्सों का कहना है कि उन्हें लगातार दो-दो या तीन-तीन रात ड्यूटी करनी पड़ रही है। इससे उनका स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। न तो पर्याप्त नींद मिल पा रही है और न ही शारीरिक आराम। लंबे समय तक ऐसे हालात रहने से उन्हें मानसिक थकान, तनाव और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।

गर्मी का मौसम और बढ़ते मरीज

इस समय जब गर्मी अपने चरम पर है, मौसमी बीमारियों की वजह से अस्पताल में मरीजों की संख्या में जबरदस्त वृद्धि हो रही है। सभी वार्डों के बेड लगभग फुल हैं। मरीजों की देखभाल के लिए जितने स्टाफ की आवश्यकता है, उसका चौथाई हिस्सा ही अस्पताल में तैनात है।

स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि यदि किसी अस्पताल में नर्सों की संख्या आवश्यकता से कम हो, तो इसका सीधा असर मरीज की देखभाल पर पड़ता है। समय पर दवाएं न मिलना, सही तरीके से देखभाल न हो पाना और इमरजेंसी में त्वरित सेवाएं न मिलना गंभीर परिणामों को जन्म दे सकते हैं।

प्रशासन की अनदेखी या व्यवस्था की कमी?

स्थिति की गंभीरता को देखते हुए यह सवाल उठना लाजमी है कि आखिर प्रशासन इस पर संज्ञान क्यों नहीं ले रहा? बार-बार नर्सिंग स्टाफ की ओर से लिखित और मौखिक रूप से मांग उठाई जा चुकी है कि नए स्टाफ की भर्ती की जाए, लेकिन कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया।

आंतरिक सूत्रों की मानें तो नर्सिंग स्टाफ की स्वीकृत रिक्तियों का एक बड़ा हिस्सा वर्षों से खाली पड़ा है। भर्ती की प्रक्रिया न तो नियमित है और न ही पारदर्शी। स्वास्थ्य महकमा सिर्फ कागजों में व्यवस्था सुधारने की बात करता है, जमीनी हकीकत उससे कोसों दूर है।

स्थायी समाधान क्या हो सकते हैं?

  1. नर्सों की शीघ्र भर्ती: स्वास्थ्य विभाग को तत्काल प्रभाव से भर्ती प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए। नर्सिंग कालेजों से पास आउट हो चुके छात्रों को अनुबंध या स्थायी आधार पर नियुक्ति दी जा सकती है।
  2. वर्क लोड के अनुसार शिफ्ट ड्यूटी: नर्सों को लगातार रात्रिकालीन ड्यूटी न देकर शिफ्ट के अनुसार समुचित कार्य विभाजन किया जाए, जिससे मानसिक और शारीरिक तनाव कम हो।
  3. नर्सिंग शिक्षा को बढ़ावा: राज्य में नर्सिंग कोर्सेज की संख्या और गुणवत्ता बढ़ाई जाए, जिससे भविष्य में नर्सों की कमी न हो।
  4. प्रोत्साहन और सुविधाएं: नर्सिंग स्टाफ को विशेष भत्ता, स्वास्थ्य बीमा और मानसिक परामर्श की सुविधा दी जाए जिससे वे बेहतर मनोबल से कार्य कर सकें।
  5. मानव संसाधन ऑडिट: प्रत्येक छह महीने में अस्पतालों में मानव संसाधन की स्थिति का मूल्यांकन कर, जरूरत के अनुसार स्टाफ बढ़ाया जाए।

सरकारी नीतियों पर सवाल

राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (NHM) और उत्तर प्रदेश की स्वास्थ्य योजनाओं में नर्सिंग स्टाफ की अहम भूमिका है। ऐसे में नर्सों की लगातार उपेक्षा न केवल योजनाओं की सफलता को बाधित करती है, बल्कि जन स्वास्थ्य प्रणाली पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है।

अस्पताल के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि शासन से बार-बार अनुरोध किया गया, लेकिन फाइलें पास नहीं हो पा रही हैं। वहीं, दूसरी ओर, निजी अस्पतालों में सुविधाओं और वेतन की वजह से कई नर्सें सरकारी नौकरी की ओर रुख ही नहीं कर रही हैं।

क्या ऐसे होगा स्वास्थ्य सेवा में सुधार?

यदि यही हालात रहे, तो सवाल उठना लाजमी है कि क्या रायबरेली जिला अस्पताल में मरीजों को समय पर इलाज और देखभाल मिल पाएगी? क्या ऐसे हालात में सरकार “स्वस्थ उत्तर प्रदेश” और “जनहित में स्वास्थ्य सेवा” जैसे संकल्पों को पूरा कर पाएगी?

सरकार को चाहिए कि स्वास्थ्य सेवा को केवल घोषणाओं तक सीमित न रखकर जमीनी स्तर पर सुधार सुनिश्चित करे। नर्सें अस्पताल की रीढ़ होती हैं, और उनकी उपेक्षा करके किसी भी स्वास्थ्य योजना को सफल नहीं बनाया जा सकता।


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